11.8.10

इधर कुंआ उधर खाई

कहते हैं पुरुष के भाग्य को और स्त्री के मन की बात को जानना असंभव हैं.
हो सकता है किंतु स्त्री यदि पत्नी के अवतार में हो तो यह बात सत्य प्रतीत होती है.
उदाहरण के लिये प्रस्तुत है कविराज और कविरानी का यह वार्तालाप. आनंद लिजिये...

- अजी सुनिये
- सुनाईये
- देखिये तो मैंने नई साड़ी पहनी है. कैसे लग रही है ?
- वाह...बहुत सुंदर लग रही है.
- साड़ी ही सुंदर लग रही है. मैं कुछ भी नहीं?
- तुमने साड़ी के बारे में पूछा तो...
- तो अब अपने मुंह से कहूं कि मेरी प्रशंसा करो.
- नहीं मेरे कहने का ये अर्थ नहीं है.
- हूं...
- अच्छा रूठती क्यों हो.सुनो, कविता द्वारा तुम्हारी प्रशंसा करता हूं.
- चलो ठीक है करिये.
- चंदन जैसे बदन पर ये साड़ी लिपटी है...
- ये क्या प्रशंसा हुई ? लिपटी है... साड़ी न हुई नागिन हो गई.
- नागिन कैसे ?
- और क्या चंदन से नाग-नागिन ही तो लिपटते हैं
- वैसे मैं भी तो...चलो छोड़ो...मेरी कविता तो पूरी होने दो न.
- ठीक है करो न.
- चंदन जैसे बदन पर ये निराली साड़ी लिपटी है
- क्या?
- ओह..चंदन जैसे बदन पर निराली साड़ी सजी है
- हां....
- चंदन जैसे बदन पर
निराली साड़ी सजी है
अंग तुम्हारे लग कर
साड़ी खूब खिली है
- अर्थात मैंने पहनी इसलिये ये साड़ी सुंदर लग रही है, वैसे सुंदर नहीं है?
- ओफ्फोह...समझा करो...
- क्या समझूं ? प्रशंसा करनी तो आती नहीं और कवितायें करते हो.
- ओ यार चलो...साड़ी और तुम दोनों ही सुंदर हो.बस्स्स...
- प्रशंसा कर रहे हो या नौकरी भुगता रहे हो.
- अब तुम ही बताओ प्रिये कैसे करूं?
- कविराज हो... तो कुछ फूल-फुंदने लगाईये न.
- क्या लगाऊं तुम्हारे सामने तो मैं ही फूल बन जाता हूं.
- फूल ?
- वही इंगलिश वाला फूल
- वेरी कूल वेरी कूल
- खुश
- बस...हो गई...थोड़ी सी
- तो अभी और बाकी है ?
- जी...अभी फुंदने बाकी है.
- तुम्हारी संतुष्टि के लिये तो स्वर्ग से देवता बुलाने पड़ेंगे.
- जी नहीं स्वर्ग के देवताओं की कोई आवश्यकता नहीं.
- क्यों ?
- क्यों की आप भी तो देवता हो न... मेरे पति देव हो.
- .................
- चुप क्यों हो गये? कुछ कहिये न
- .........................................
 
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